“… आपके प्रकाशन नियम अनुसार मैं अपनी मैन्युस्क्रिप्ट भेज रही हूँ जिसमें दो कहानियाँ और छह कहानियों का सारांश है…”
मैं लैपटॉप पर मेल टाइप कर ही रही थी कि मेरे भाई सार्थक ने मुझे पुकारा।
“खाना खा लो दीदी। रानी के अलावा तुम और भी बहुत कुछ हो।”
“हाँ बस दो मिनट और,” कहते हुए मैंने टाइपिंग तेज़ कर दी।
“… शुभेच्छा, रानी (पेन नेम)” टाइप कर मैंने मेरे मेल का ड्राफ्ट पढ़ा। सब कन्फर्म कर सेंड क्लिक किया और लैपटॉप बंद कर दिया। फिर मैं लिविंग रूम आई जहाँ सार्थक और मम्मी-पापा डिनर के लिए मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं कुर्सी पर बैठी और खाना शुरू कर दिया।
“एक बात बताओ,” खाने के दौरान मम्मी ने कहा। “तुम मैन्युस्क्रिप्ट पेन नेम से क्यों भेज रही हो? पब्लिशर को अपना असली नाम क्यों नहीं बताती?”
“असली नाम तो तब बताउंगी न जब मेरी कहानी को कोई एक्सेप्ट करेगा,” मैंने आँखें घुमाई। “मुझे कितने पब्लिशर्स ने रिजेक्ट किया है, वो गिनना मैं बंद कर चुकी हूँ।”
“देखो बेटी, मैंने तुम्हारी कहानियाँ पढ़ी हैं और सब में तुमने पंक्चएशन मार्क्स की बहुत गलतियां की हैं…” पापा ने अपना लेक्चर शुरू कर दिया और मैं उनकी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालती रही।
खाना खत्म कर मैं बालकनी में आई और अपने शहर धनौल्टी को देखा जो उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले का एक छोटा सा हिल स्टेशन है। क्या पापा सही कह रहे हैं, मैंने सोचा। हाँ, मुझे व्याकरण और पंक्चएशन मार्क्स की ज़्यादा जानकारी नहीं, पर वे कहानी के प्लॉट की तारीफ तो करते ही हैं। यही सब सोचते हुए मैं बेडरूम आई। जिस पब्लिशर को मैंने डिनर से पहले मेल भेजी वह मेरी कहानी स्वीकार करेगा या नहीं, यही सोचते हुए मैं कब सो गई पता ही नहीं चला।
***
एक हफ्ता हो चुका था पर उस पब्लिशर ने कोई रिस्पांस नहीं दिया था। अब मैं सोचने लगी थी कि किताब के अलावा ऐसा कौन सा सोर्स है जहाँ कहानी दी जा सके।
“क्या हुआ दीदी?” मैं सोच ही रही थी कि सार्थक ने मुझे पुकारा। “अभी तुम किस रूप में हो?”
“क्या मतलब किस रूप में?” मैंने पूछा।
“मतलब ये कि अभी तुम दीदी हो या रानी हो?” कहते हुए वह मेरे सामने बैठ गया।
“अभी के लिए… रानी,” मैंने कहा।
“तुम पापा की बात पर ध्यान क्यों नहीं देती?” उसने पूछा। “पापा ने तुम्हारे ड्राफ्ट पढ़े तो हैं… मुझे दो। मैं बताता हूँ क्या करना है।”
मैं बेडरूम से लैपटॉप लाई और एमएस वर्ड फाइल्स उसे दे दी। लेकिन सार्थक एक पेज भी पूरा नहीं पढ़ सका।
“पापा सही कहते हैं,” उसने चिढ़ते हुए कहा। “पंक्चएशन मार्क्स की बहुत गलतियां हैं। ऐसे तो तुम कभी राइटर नहीं बन पाओगी।”
“तुम मेरे भाई हो या दुश्मन?” मैंने उसे कुशन मारा।
“मंदिर जाकर भगवान से प्रार्थना करो,” सार्थक ने सलाहकार की तरह कहा। “अब बस वही हैं जो कुछ कर सकते हैं।”
उसकी बात में दम है, मैंने सोचा।
“मैं सैटरडे को सुरकंडा देवी मंदिर जाऊंगी,” मैंने कहा।
“हम भी चलेंगे,” किचन से मम्मी की आवाज़ आई।
***
सैटरडे को हम सब सुरकंडा देवी मंदिर पहुंचे।
सुरकंडा देवी मंदिर 51 शक्तिपीठ में से एक है और टिहरी गढ़वाल ज़िले का एक प्रमुख आकर्षण है। यह समुद्र से 2,756 मीटर की ऊंचाई पर धनौल्टी से 8 किलोमीटर दूर स्थित है। मंदिर जाने के तीन रास्ते हैं : पैदल चढ़ाई, सीढीयां और रोपवे।
हम पैदल चढ़ाई कर हांफते हुए मंदिर पहुंचे। हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया, जूते उतारे और गर्भगृह की ओर बढ़ गए।
गर्भगृह में पंडितजी ने हमें तिलक लगाया। हमने देवी को दंडवत की और प्रार्थना कर आशीर्वाद लिया। फिर हम बाहर परिसर में आ गए। वहाँ आकर मुझे पता चला कि देवी ने मेरी प्रार्थना सुन ली है जब वह स्वर मैंने सुना।
“… रानी की कहानी का प्लॉट तो ज़बरदस्त है…”
मैंने यह कहने वाले व्यक्ति को देखा। उसने जेब से फ़ोन निकाला और किसी को कॉल की। मैं चोरी छिपे उसकी बात सुनने लगी।
“हेलो… हाँ दीप्ति… एडिटर साहब को कहना कि मेरी तरफ से रानी की कहानी अप्रूव्ड है… तुम सब रिजेक्ट कर रहे हो… इतनी गलती चल जाती है… यही तो हमारा काम है… तुम बस उन्हें कहना कि कौस्तुभ राज़ी है, बाकी टीम का रिव्यु क्या है मुझे नहीं जानना।”
इतना कहकर उसने फोन रख दिया।
रोपवे से हम नीचे जा रहे थे और मेरे दिमाग में कौस्तुभ का चेहरा और बातें दर्ज़ हो गए थे।
***
शाम को मेरे फोन की नोटिफिकेशन की रिंग बजी। मैंने देखा, वह पब्लिशर का मेल था। मैं उसे पढ़ते हुए हँस भी रही थी और रो भी रही थी।
“अरे क्या हो गया?” मम्मी दौड़ती हुई आईं। “क्यों पगला रही हो?”
“देवी ने मेरी प्रार्थना सुन ली,” मैंने मम्मी को मेल दिखाया। “मेरी कहानी एक्सेप्ट हो गई है। उन्होंने मुझे पेपरवर्क के लिए दिल्ली बुलाया है।”
मैंने उन्हें कौस्तुभ के बारे में भी बताया, जिसे मैंने मंदिर में देखा था।
“दिल्ली कब जाना है?” उन्होंने कौस्तुभ वाली बात पर ध्यान नहीं दिया।
“एक हफ्ते में जाना है,” मैंने मेल पढ़ते हुए कहा। “उन्होंने मेरे लिए होटल भी बुक कर दिया है।”
“तुम अकेली नहीं जाओगी,” पापा बोले। “हम भी साथ चलेंगे।”
***
चार दिन बाद हम दिल्ली के कश्मीरी गेट स्थित महाराणा प्रताप इंटरस्टेट बस टर्मिनल पर थे। वहाँ से हमने कैब बुलाई और होटल पहुंचे।
अगले दिन हम पब्लिशर के ऑफिस गए। रिसेप्शन पर मैंने अपना इंट्रोडक्शन दिया। रिसेप्शनिस्ट ने एडिटर को मेरे आने की सूचना दी और फिर मुझे एडिटोरियल ऑफिस में बुलाया गया।
वहाँ मेरी आँखें फटी रह गई, जब मैंने उस व्यक्ति को देखा जो मुझे सुरकंडा देवी मंदिर में मिला था।
“आपकी कहानियाँ एक किताब में प्रकाशित होंगी,” एडिटर ने कहा। “आप इस किताब को रानी की कहानी टाइटल देना चाहेंगी या कुछ और?”
मैंने रानी की कहानी पर सहमति दे दी।
“आप पेन नेम से लिख रही हैं इसलिए…” उन्होंने मुझे पेन नेम से जुड़े कायदे कानून बताए, जिसपर मैं पहले ही रिसर्च कर चुकी थी। “…पर आपको अपना फोटो लगवाना ही होगा और एक बायो भी देना होगा।”
मैंने पेपर्स पर साइन कर दिया।
छह महीने पब्लिशिंग का प्रोसेस चला। जब मुझे अप्रूवल के लिए फाइनल ड्राफ्ट मिला तो मैं दंग रह गई। कौस्तुभ और उसकी टीम ने मेरी सब गलतियां ठीक कर दी थी। पापा सही कहते थे कि मुझे पंक्चएशन मार्क्स और व्याकरण पर मेहनत करनी चाहिए।
मैंने ड्राफ्ट अप्रूव कर दिया और दो महीने बाद मेरी किताब मार्किट में आई, जो कुछ ही दिनों में बेस्टसेलर भी बन गई।
इस वक़्त मैं बैंक में हूँ और मेरा रॉयल्टी का चेक डिपाजिट कर रही हूँ। तभी मेरा फोन बजता है। मैं देखती हूँ कि यह कॉल मेरे एडिटर कौस्तुभ का है।
“कैसी हो रानी?” वह पूछता है।
“बैंक आई हूँ,” मैं कहती हूँ। “अब ये मत पूछना कि मैं यहां क्या कर रही हूँ।”
वह हँसने लगता है।
“अच्छा ये छोड़ो,” संयत होकर वह कहता है। “दो महीने बाद दिल्ली में वर्ल्ड बुक फेयर है। हमने स्टॉल बुक कर लिया है। तुम आओगी न?”
समाप्त
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