मैं पहले ही देर से पहुंचा था; सभी बेंच भरे हुए थे। बस एक वही लड़की थी जो अकेली बैठी थी। मैंने एक बार उसके साथ बैठने की सोची, फिर लगा मैं उसके साथ क्यों बैठना चाह रहा हूँ? कुछ स्टूडेंट्स को मैं जानता तो हूँ – उनके साथ भी बैठा जा सकता है।
मैं इतना शर्मीला क्यों हूँ? लड़कियों से बात करने में मुझे इतनी हिचक क्यों होती है?
ब्रो-ज़ोन हो जाओ लेकिन उसी के साथ बैठो – मेरे मन के एक कोने से आवाज़ आई।
मेरा एक दोस्त राजीव, जो पढ़ाई में औसत था, आर्ट्स में ही था। उसकी आवाज़ आई, “कौस्तुभ, वहाँ खड़े क्या सोच रहे हो?”
“बैठने को जगह ढूंढ रहा हूँ”, उसकी तरफ जाते हुए मैंने कहा। “तुम्हारे साथ ये कौन है?”
“हेलो, मैं गौरव हूँ”, राजीव के साथ बैठे लड़के ने कहा। “मैं यहां नया हूँ।”
“मैं कौस्तुभ”, मैंने हाथ मिलाते हुए कहा।
“जल्दी कोई सीट ढूंढ लो”, राजीव ने कहा। “क्लास शुरू होने वाली है।”
“हाँ ठीक है। लंच में मिलते हैं।” मैंने उस लड़की की ओर बढ़ते हुए कहा।
***
“हेलो, मैं कौस्तुभ हूँ”, मैंने कहा।
“मैं सुरभि”, उसने जवाब दिया।
“यहां बैठने के लिए सीट नहीं बची हैं। मैं तुम्हारे साथ बैठ सकता हूँ?” मैंने पूछा।
“हाँ बिलकुल। वैसे मैं हमेशा से लड़कियों के साथ बैठती थी पर अब एक लड़के से दोस्ती हो ही जाएगी”, सुरभि ने जवाब दिया।
“मैं समझा नहीं। लड़के से दोस्ती हो ही जाएगी? ये क्या बात हुई?” मैंने पूछा।
“मैं अब तक लड़कियों के साथ ही बैठती रही हूँ। कभी लड़कों के साथ नहीं बैठी। वैसे, तुम किस स्कूल से हो?”
“मुझे यहां दो साल हो गए।”
“ओह अच्छा।”
“तुम अभी से पढ़ने बैठ गईं?” मैंने बात बदली।
“मुझे पढ़ना अच्छा लगता है। कोई भी किताब जो फिक्शन न हो”, उसने कहा और चार-पाँच नॉन-फिक्शन किताबों के नाम गिना दिए। तभी क्लास शुरू होने की घंटी बज गई नहीं तो वह उनका कंटेंट भी बता देती।
अटेंडेंस में मैंने देखा कि राजीव मुझे ही देख रहा था जैसे मैंने बम फोड़ दिया हो। उसकी हैरानी जायज़ थी क्योंकि मैं कितना शर्मीला हूँ उसे पता था।
अब तक तो उसे यकीन हो गया होगा कि मैं लंच करने उसके पास नहीं आऊंगा। फ़िक्र नहीं दोस्त, कर लूंगा तुम्हारे साथ लंच।
***
तीन दिन बाद लाइब्रेरी का पीरियड था। लाइब्रेरी के लिए मैं हमेशा उत्साहित रहता था क्योंकि यहां कई मशहूर लेखकों के नॉवेल्स मिल जाते थे। लाइब्रेरियन राकेश गुप्ता सर से मेरी अच्छी जान-पहचान बन गई थी।
“यहीं से मैंने चेतन भगत की कहानियाँ पढ़ी हैं,” मैंने बड़े उत्साह से सुरभि को बताया।
“तुम किताब के नाम पर सिर्फ कहानियाँ पढ़ते हो?” उसने पूछा।
“तो क्या वे किताबें नहीं होती?” मैंने पलट कर पूछा।
बहस करते हुए हम लाइब्रेरी पहुंचे।
“सर, यहां क्या नॉन-फिक्शन किताबें नहीं मिलेंगी?” सुरभि ने पूछा।
“हम्म,” लाइब्रेरियन गुप्ता सर ने सोचते हुए मुझसे पूछा। “कौस्तुभ, तुम्हें तो सिर्फ कहानियाँ ही चाहिए?”
“जी हाँ, सर,” मैंने कहा।
“तुम दोनों पंचतंत्र पढ़ो।”
“पंचतंत्र?” हम दोनों हैरानी से एक साथ बोले।
“लेकिन ये तो बच्चों के लिए है न?” मैंने झिझकते हुए पूछा। इस दौरान सुरभि बच्चों के शेल्फ की ओर देख रही थी।
“मैंने सीनियर स्टूडेंट्स के लिए ओरिजिनल पंचतंत्र मंगवाई है,” गुप्ता सर ने बताया। “एक बार पढ़ो; समझ जाओगे कि ये किताब फिक्शन भी है और नॉन-फिक्शन भी।”
हमने किताब पढ़नी शुरू की और पढ़ते रहे। कुछ देर बाद सुरभि उसे इशू भी करवा लाई, पर मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तब तक घंटी बज गई। पहली बार था जब मैं बिना किताब के लाइब्रेरी से निकला था। रास्ते भर राजीव ने इस बात पर मेरी खूब खिंचाई की।
जब मैं मेरी छोटी बहन अमृता, जो आठवीं कक्षा में थी, के साथ घर लौट रहा तब उसने भी जानना चाहा कि मैंने इस बार कौन सी किताब इशू कराई है। मैंने उसे सब बता दिया। सुरभि के बारे में भी।
“मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं लाइब्रेरी वाले कांड पर हँसू या तुम्हारी और उस लड़की की दोस्ती पर हैरान होऊं,” अमृता ने कहा।
कहानी ज़ारी है...
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